گلهای تازه ۱۱۲
گوینده: آذر پژوهش |
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اگر روم ز پیاش فتنهها برانگیزد |
ور از طلب بنشینم به کینه برخیزد |
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وگر به رهگذری یکدَم از هواخواهی |
چو گَرد در پیاش افتم چو باد بگریزد |
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وگر کنم طلب نیم بوسه صد افسوس |
ز حُقّۀ دهنش چون شکر فرو ریزد |
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تو عُمر خواه و صبوری که چرخِ شعبدهباز |
هزار بازی از این طُرفهتر برانگیزد |
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فراز و شیب بیابانِ عشق دام بلاست |
کجاست شیردلی کز بلا نپرهیزد |
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من آن فریب که در نرگسِ تو میبینم |
بس آبروی که خاکِ ره برآمیزد |
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حافظ (غزل) |
آواز: شهیدی |
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اگر روم ز پیاش فتنهها برانگیزد |
ور از طلب بنشینم به کینه برخیزد |
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وگر به رهگذری یکدَم از هواداری |
چو گَرد در پیاش افتم چو باد بگریزد |
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من آن فریب که در نرگسِ تو میبینم |
بس آبروی که با خاک ره برآمیزد |
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فراز و شیب بیابانِ عشق، دام بلاست |
کجاست شیردلی کز بلا نپرهیزد |
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تو عمر خواه و صبوری که چرخ شعبدهباز |
هزار بازی از این طُرفهتر برانگیزد |
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بر آستانۀ تسلیم سر بنه حافظ |
که گر ستیزه کنی روزگار بستیزَد |
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حافظ (غزل) |
گوینده: آذر پژوهش |
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ای که در کُشتنِ ما هیچ مُدارا نکنی |
سود و سرمایه بسوزی و مُحابا نکنی |
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رنج ما را که توان بُرد به یک گوشۀ چشم |
شرطِ انصاف نباشد که مداوا نکنی |
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حافظ (غزل) |
تصنیف: شهیدی |
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ای که در کُشتنِ ما هیچ مُدارا نکنی |
سود و سرمایه بِسوزی و محابا نکنی |
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رنج ما را که توان برد به یک گوشۀ چشم |
شرطِ انصاف نباشد که مداوا نکنی |
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دیدۀ ما چو به امّیدِ تو دریاست چرا |
به تفرّج گذری بر لب دریا نکنی |
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بر تو گر جلوه کند شاهدِ ما ای زاهد |
از خدا جز می و معشوق تمنّا نکنی |
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ای که در کُشتن ما هیچ مُدارا نکنی |
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حافظا سجده به ابرویِ چو محرابش بر |
که دعایی ز سرِ صِدق جز آنجا نکنی |
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ای که در کشتن ما هیچ مدارا نکنی |
سود و سرمایه بسوزی و مُحابا نکنی |
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حافظ (غزل) |